दलहनी फसलें क्या है इनका महत्व एवं इनके उत्पादन में आने वाली बाधाएं और इनका उत्पादन बढ़ाने के सुझाव
Pulse शब्द लैटिन भाषा के शब्द Puls से लिया गया है जिसका अर्थ होता है Cooked Pottage ( भूनी फलियां ) अर्थात उन पौधों को पल्स की संज्ञा दी गई है, जिनकी फलियों को भूनकर खाया जा सकता है।
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दलहनी फसलें का महत्व एवं इनका उत्पादन कैसे बढ़ाएं |
वे दलहनी पौधे जिनकी फलियों को तोड़कर उनके अंदर के बीजों का प्रयोग दाल के रूप में किया जाता है, दलहनी फसलें कहलाती है।
दलहनी फसलों का महत्व करता है
दलहनी फसलों का भारतीय दशाओं में निम्न महत्व है -
1. भारतीय भोजन जो कि मूख्यतया शाकाहारी होता है, में दलहनें प्रोटीन पूर्ति का मुख्य साधन है।
2. दलहनी फसलें आवश्यक अमीनों अम्लों जो कि जीवों की शारीरिक संगठन के लिए अद्वितीय महत्व रखती है की पूर्ति का मुख्य साधन है।
3. दलहनी फसलों के हरे पौधे पशुओं के लिए सर्वोत्तम चारे में प्रयोग किए जाते हैं।
4. दलहनी फसलें दाल की पूर्ति के साथ-साथ हरी फलियां एवं पत्तियां सब्जी के रूप में प्रयोग की जाती हैं।
5. दलहनी में नत्रजन स्थिरीकरण का नैसर्गिंक ( Genotypic ) गुण होने के कारण वे वायुमंडलीय नत्रजन को अपनी जड़ों में स्थिर करके मृदा उर्वरता को भी बढ़ाती है।
6. दलहनी फसलों के पौधे फैलकर बढ़ते हैं जिसके कारण वे मृदा को आच्छद प्रदान करते हैं परिणाम स्वरूप मृदा कटाव कम होता है।
7. दलहनों की जड़ प्रणाली मूसला होने के कारण वे शुष्क क्षेत्रों जहां पर वर्षा कम होती है तथा सिंचाई की सुविधा नहीं होती है वहां भी उत्पादित की जा सकती है।
8. दलहनी फसलों को हरी खाद के रूप में प्रयोग करके मृदा में जीवांश पदार्थ तथा नत्रजन की मात्रा में वृद्धि की जा सकती है।
9. दलहनी फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फास्फोरस व अन्य खनिजों की काफी मात्रा होने के कारण कुक्कुटों व पशुओं के लिए महत्वपूर्ण रातव शामिल होते हैं।
10. सीमान्त तथा कम उपजाऊ मृदाओं में भी दलहनी फसलों को उगाया जा सकता है।
11. दालों के अतिरिक्त इनका प्रयोग मिठाईयां, पकौड़ी, नमकीन आदि बनाने में भी किया जाता है।
12. सोयाबीन व मूंगफली की खलियां पशुओं के लिए अति पौष्टिक आहार होती हैं।
13. कुछ फलीदार फसलों जैसे कि मूंगफली व सोयाबीन का प्रयोग व्यापारिक स्तर पर तेल प्राप्त करने के लिए किया जाता है।
दलहनी फसलों के उत्पादन में आने वाली बाधाएँ
आदिकाल से ही दलहनों का भारतीय भोजन में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। तथापि भारत में औसत दाल उत्पादकता अन्य विकसित देशों की अपेक्षा आधी से भी कम है, जिसके निम्न कारण है -
1. जलवायु संबंधी विसंगतिया
दलहनी फसलें जलवायु के प्रति अति संवेदनशील फसलें हैं। सूखा, पाला, बाढ का दलहनों पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भारत में आज भी 90% दलहन उत्पादन क्षेत्र वर्षाधीन है। जिसके कारण औसत उत्पादकता कम है।
( i ) उत्तरी भारत में पाले का प्रकोप होने के कारण फसल की उत्पादकता काफी प्रभावित होती है।
( ii ) तराई क्षेत्रों में मृदा आर्द्रता ज्यादा होने के कारण उकठा ( wilt ) की समस्या ज्यादा होने के कारण उत्पादकता कम है।
( iii ) पश्चिमी भारत ( राजस्थान ) एवं मध्य प्रदेश आदि राज्यों में सूखा के प्रकोप के कारण उत्पादकता कम है।
2. उच्च उपज वाली प्रजातियों का अभाव
दलहनें आदिकाल से ही सीमान्त क्षेत्रों पर उगाई जाती रही है तथा आप भी मुख्य व्यावसायिक फसलों की श्रंखला में न आने के कारण अनुसंधानात्मक स्तर पर ही दलहनों पर धान्य फसलों की अपेक्षा कम ध्यान दिया गया है। जिसके कारण उच्च गुणवत्ता वाली लागत संवेदी प्रजातियां उपलब्ध नहीं हो पाई है।
3. अवैज्ञानिक प्रबन्ध स्तर
( i ) खराब प्रबन्ध स्तर
सीमान्त क्षेत्रों के किसानों की आर्थिक दशा खराब होने के कारण वे उर्वरक आदि का समयानुसार तथा संतुलित प्रयोग नहीं कर पाते हैं तथा उक्त क्षेत्रों में सिंचाई की भी उचित व्यवस्था न उपलब्ध होने के कारण फसलों में जल प्रबन्ध खरपतवार एवं व्याधिजीव ( Pest ) प्रबन्धन अनुकूल नहीं हो पाता जिसके कारण उत्पादकता कम है।
( ii ) राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्ध की अनुपलब्धता
सभी दलहनी फसलों के लिए राइजोबियम जीवाणु उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, इसके साथ ही राइजोबियम जीवाणुओं के संवर्धों हेतु उचित तापक्रम नियंत्रक न होने के कारण संवर्धन प्रभावहीन हो जाते हैं तथा मनवांछित परिणाम नहीं प्राप्त हो पाता है।
( iii ) उचित समय पर बुवाई का न होना
सिंचाई की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण प्राय: फसल की अगेती बुवाई करनी पड़ती है जिसके कारण वानस्पतिक बढ़वार ज्यादा होने के कारण उपज घट जाती है।
( iv ) दोषयुक्त फसल बुवाई विधि
दलहनी फसलों की बुवाई प्राय: छिड़काव विधि द्वारा की जाती है। जिसके कारण फसल अंकुरण ठीक नहीं होता है। खरपतवार नियंत्रण में व्यवधान होता है तथा उपज अपेक्षाकृत कम प्राप्त होती है।
( v ) अक्षम कीट एवं व्याधि नियंत्रण
दलहनी पौधों में प्रोटीन पदार्थ अन्य पौधों की अपेक्षा ज्यादा होने के कारण वे सरस होते हैं जिसके कारण दलहनी फसलों पर कीट व बीमारियों का प्रकोप ज्यादा होता है। सीमान्त क्षेत्रों के कृषकों की आर्थिक तंगी, अशिक्षा एवं अज्ञानता के कारण समय पर कीट एवं व्याधि नियंत्रण की समुचित व्यवस्था न हो पाने के कारण कम उपज प्राप्त होती है।
4. वानस्पतिक कारण
( i ) असीमित वृद्धि
दलहनी फसलों के पौधों की वृद्धि अत्यधिक होती है। जिसके कारण पौधे के आगे वाले भाग की वृद्धि सतत् रूप से चलती रहती है तथा पत्तियों के कक्षों में फूल व फलियों का निर्माण भी होता रहता है, जिसके कारण नीचे वाली फलियों के पकने के समय ऊपर वाले फल अविकसित रहते हैं तथा ऊपर वाली फलियों के पकने समय तक का इंतजार करने पर नीचे वाली फलियां झड़ जाती हैं।
( ii ) प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशीलता
दलहनी फसलों के पौधे प्रकाश एवं ताप के प्रति संवेदनशील होते हैं अर्थात् इनमें इनके पौधों में पुष्पन की क्रिया मौसम पर आधारित होती है। वर्षा पोषित क्षेत्रों में फसल की बुवाई संचित नमी का उपयोग करने के लिए प्रायः जल्दी कर दी जाती है। जिसके कारण वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है क्योंकि पौधे प्रकाश संवेदी होने के कारण उसी समय पुष्पन करते हैं जब उनके लिए उपयुक्त समय मिलता है।
इस अति वृद्धि के कारण पौधों में पारस्परिक प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती हैं तथा फूल व फलियां कम बन पाती हैं। इसके विपरीत विलम्ब से बुवाई करने पर फसल की वानस्पतिक वृद्धि काफी कम हो पाती है, क्योंकि ज्यों ही उपयुक्त मौसम पौधे को प्राप्त होता है, फूल निकल आते हैं। इस प्रकार दोनों ही परिस्थितियों में उपज प्रभावित होती है।
5. भंडारण की अनुप्रयुक्त सुविधा
दलहनों में प्रोटीन पदार्थ की अधिकता होने के कारण भंडारण के समय भी इनके कीड़े मकोड़ों का प्रकोप काफी ज्यादा होता है। जिसके कारण भंडारण के दौरान काफी क्षति हो जाती है और किसान बड़े स्तर पर दलहनी फसलों की खेती करने से कतराते है।
दलहनी फसलों का उत्पादन बढ़ाने हेतु सुझाव
दलहनी फसलों का उत्पादन बढ़ाने हेतु निम्न सुझाव अपनाए जाने चाहिए
1. सीमान्त क्षेत्रों के किसानों हेतु सरकार द्वारा समय पर खाद, उर्वरक एवं बीज उपलब्ध कराया जाना चाहिए, जिससे की फसल की समय से बुवाई की जा सके तथा यथोचित उर्वरक प्रबन्ध किया जा सके।
2. प्रकाश एवं ताप असंवेदी प्रजातियों का विकास किया जाना चाहिए, जिससे समस्त फलियों को एक साथ प्रभाव पूर्ण ढंग से काटा जा सके।
3. उच्च उपज वाली जलवायु अनुसार प्रजातियों के विकास पर जोर दिया जाना चाहिए।
4. कीट व्याधि नियंत्रण के प्रति सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए, जिससे कि कीट एवं व्याधि नियंत्रण समय से किया जा सके।
5. सीमान्त क्षेत्रों में भी सिंचाई सुविधा का विकास किया जाना चाहिए जिससे कि दलहनों की उत्पादकता बढ़ाई जा सके।
6. फसलोत्पादन वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित होना चाहिए।
7. खाद एवं उर्वरकों की आवश्यक मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के बाद किया जाना चाहिए। जिससे कि उर्वरक संसाधनों का अनावश्यक न हो तथा वे समस्त पोषक तत्व पौधे को दिए जा सके जिसकी मृदा में कमी है।
8. राइजोबियम जीवाणुओं के प्रभावी संवर्ध उत्पादन एवं भंडारण सुविधा के विकास पर जोर दिया जाना चाहिए, जिससे कि दलहनों को प्राप्त नैसर्गिक गुण ( नत्रजन स्थिरीकरण ) का अधिकतम उपयोग किया जा सके।
9. बीजों को सर्वदा उपचारित करके बुवाई करनी चाहिए, जिससे कि बीज जनित रोगों से मुक्ति मिल सके तथा उत्पादन बढ़ाया एवं उत्पादन लागत कम की जा सके।
10. बुवाई कतारों में व समय संगत किया जाना चाहिए, जिससे कि मन वांछित पादप संख्या प्राप्त की जा सके तथा खरपतवार नियंत्रण करते समय आसानी हो।
11. दलहनी फसलों के मूल्य का सही निर्धारण होना चाहिए, जिससे कि उचित मूल्य से आकृष्ट होकर किसान दलहनी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल बढ़ा सकें।
खरीफ की दलहनी फसलों के नाम
1. सोयाबीन - ग्लाइसिन मैक्स
2. तुर अथवा अरहर - कैजेनस कजान
3. मूंग - विग्ना रेडियेटा
4. उड़द - विग्ना मूंगो
5. मोठ - फेसियोलस एकोनलिटफोलियस
6. ग्वार - साया मोटिसस टेट्रागोनोलोबस
7. लोबिया या चावला - वगीना अनज्यूकुलाता
8. कुलथी - मैक्रोटेलोमा यूनिफ़्लोरम
9. राजमूंग ( राईसबीन )
रबी की दलहनी फसलों के नाम
1. चना - सिसर एरिटिनम लीन
2. मटर - पाइसम स्पीसीज
3. मसूर - लैन्स एसकुलैण्टा
4. राजमा - फैजिओल्स वल्गेयर
5. खेसारी - लेथाइरस सेटाइवस
दलहनी फसल से मिलते-जुलते कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर
प्रश्न 1. दलहनी फसल कौन-कौन सी होती हैं?
उत्तर - दलहनी फसलें निम्न प्रकार की होती हैं :-
खरीफ में बोई जाने वाली दलहनी फसलें :-
• सोयाबीन
• मूंग
• उड़द
• लोबिया
• तुर अथवा अरहर
• मोठ
• ग्वार
• लोबिया या चावला
• कुलथी
• राजमूंग
रबी में बोई जाने वाली दलहनी फसलें :-
• मटर
• मसूर
• चना
• राजमा
• खेसारी
इसके अलावा जिन क्षेत्रों में सिंचाई की अच्छी सुविधा उपलब्ध होती है, उन क्षेत्रों में जायद के मौसम में भी कुछ दलहनी फसलें बोई जाती हैं। जैसे :-
• सोयाबीन
• मूंग
• उड़द
प्रश्न 2. कौन सी दलहनी फसल में कितने प्रतिशत प्रोटीन पाया जाता है? बताइए!
उत्तर - दलहनी फसलों में प्रोटीन की प्रतिशत मात्रा :-
• चना - 21.0%
• मटर - 21.6%
• मूंग - 24.0%
• उड़द - 24.0%
• अरहर - 22.4%
• मसूर - 25.2%
• सोयाबीन - 42.0%
प्रश्न 3. दलहनी फसलों की जड़ों में क्या पाया जाता है?
उत्तर - दलहनी फसलों की जड़ों में राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम पाया जाता है।
प्रश्न 4. दलहन में कौन सा पोषक तत्व मिलता है?
उत्तर - दलहनी फसलों में नाइट्रोजन पोषक तत्व की मांग अन्य फसलों की तुलना में बहुत कम होती है। दलहनी फसलों के पौधों की जड़ों की गांठों में राइजोबियम जीवाणु पाए जाते हैं, जो वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त करवाते हैं। इससे मृदा की उर्वरता शक्ति में वृद्धि होती है। जिससे अधिक उपज प्राप्त होती है।
प्रश्न 5. दलहनी फसलों के उदाहरण लिखिए?
उत्तर - दलहनी फसलों के उदाहरण :-
खरीफ की दलहनी फसलों के उदाहरण
• सोयाबीन - ग्लाइसिन मैक्स
• तुर अथवा अरहर - कैजेनस कजान
• मूंग - विग्ना रेडियेटा
• उड़द - विग्ना मूंगो
• मोठ - फेसियोलस एकोनलिटफोलियस
• ग्वार - साया मोटिसस टेट्रागोनोलोबस
• लोबिया या चावला - वगीना अनज्यूकुलाता
• कुलथी - मैक्रोटेलोमा यूनिफ़्लोरम
• राजमूंग ( राईसबीन )
रबी की दलहनी फसलों के उदाहरण
• चना - सिसर एरिटिनम लीन
• मटर - पाइसम स्पीसीज
• मसूर - लैन्स एसकुलैण्टा
• राजमा - फैजिओल्स वल्गेयर
• खेसारी - लेथाइरस सेटाइवस