सोयाबीन की खेती कैसे करें? Soyabean in Hindi
सोयाबीन एक दलहनी एवं तिलहनी फसल है, क्योंकि इसमें तेल एवं प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है।
भारत में सोयाबीन की खेती कुछ ही दशक पूर्व से ही की जा रही है।
शाकाहारी मनुष्यों के लिए इसको मांस कहा जाता है क्योंकि इसमें बहुत अधिक मात्रा में प्रोटीन पाया जाता है।
इसके दाने में 38-42% प्रोटीन पाया जाता है जो अन्य दालों की अपेक्षा बहुत अधिक है। इसके अतिरिक्त इसमें 19.5% वसा व 20.9% कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है।
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सोयाबीन की खेती कैसे करें हिंदी में |
सोयाबीन का वानस्पतिक नाम एवं कुल
वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - ग्लाईसीन मैक्स (Glaycine max)
कुल (Family) - लेगयुमिनेसी (Leguminoceae)
बीज अच्छी किस्म के होने चाहिए। जिसका सामान्यता अंकुरण 85% हो।
कुल (Family) - लेगयुमिनेसी (Leguminoceae)
सोयाबीन का महत्व और उपयोग
सोयाबीन एक दलहनी वर्ग की मुख्य फसल है। सोयाबीन का अधिकतम उपयोग दाल बनाने तथा सोयाबीन का तेल बनानेे में आदि बनाने मेंं किया है।
पश्चिमी देशों में सोयाबीन को तिलहनी फसल के अंतर्गत रखा गया है क्योंकि इसका उत्पादन पश्चिमी देशों में तेल निकालने के लिए किया जाता है।भारत में सोयाबीन ने वर्तमान में एक प्रमुख नकदी फसल के रूप में स्थान बना लिया है।
सोयाबीन की उपयोगिता अधिक होने के कारण दिनों दिन इसकी खेती एवं इससे बने उत्पाद बाजार में लोकप्रिय हो रहे हैं। सोयाबीन का तेल निकालने के बाद जो खली (oil cack) बचती है वह जानवरों एवं मुर्गियों के लिए एक उत्तम आहार के रूप में प्रयोग की जाती है।
सोयाबीन से हलवा, पूडी, गुजिया,चाट,दही-बड़ा,भुजिया, सूप,ब्रेड,दूध आदि भोज्य पदार्थ तथा वनस्पति तेल,घी, साबुन, ग्लिसरीन, वसा अम्ल, क्रूड सोयाबीन आदि उत्पाद बनाए जाते हैं।
इसकी फसल दलहनी होने के कारण जड़ों में गांठो के द्वारा वायुमंडल की नाइट्रोजन को एकत्रित कर भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ाती है।
सोयाबीन का उत्पत्ति स्थान
सोयाबीन की उत्पत्ति का अनुमान पूर्वी एशिया या चीन से किया जाता है। आज से 5 हजार वर्ष पूर्व इसकी खेती का उल्लेख चीन के प्राचीन ग्रंथ 'मैटिरया मैडिका' में भी मिलता है। भारत में 1822 ई. में नागपुर में सर्वप्रथम इसकी खेती हुई।
सोयाबीन का क्षेत्रफल एवं वितरण
भारत में सोयाबीन के अंतर्गत 22 लाख हेक्टेयर (1993-94) क्षेत्रफल तथा उत्पादन 6.52 मिलियन टन (1997-98) तथा उत्पादकता 9.95 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
भारत में सोयाबीन की खेती मुख्य रूप से मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात तथा राजस्थान राज्यों में की जाती है। मध्यप्रदेश में इसकी खेती मुख्य रूप से होशंगाबाद, मालवांचल आदि में की जाती है।
सोयाबीन की फसल के लिए आवश्यक जलवायु
सोयाबीन के लिए गर्म - नम जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। बीज अंकुरण के लिए 40°F तथा उचित वृद्धि के लिए 75-80°F तापक्रम उपयुक्त रहता है। कम तापक्रम पर फूल कम लगते हैं।
फसल पकते समय अधिक वर्षा हानिकारक होती है। जड़ों में पानी नहीं भरना चाहिए क्योंकि जड़ों के लिए अधिक पानी हानिकारक होता है।
सोयाबीन की उन्नतशील किस्में
उत्तरी क्षेत्र - ब्रेग, शिलाजीत, अलंकार, बी.के.- 262, बी.के.- 308, बी.के.- 327, बी.के.- 416
मध्यवर्ती क्षेत्र -जवाहर, गौरव, दुर्ग, ब्रेग, अंकुर, पी.के.- 472
दक्षिणी क्षेत्र - KHSB-2 , MACS-13
मध्य प्रदेश में 110 से 115 दिनों में तैयार होने वाली जातियां - दुर्गा, जे.एस.80-21 और पंजाब-1 हैं।
इन किस्मों के अलावा टाइप-49, VLS-1, J-231, J-202, PK-330, NP-04, ली, सीमैस आदि किस्में प्रचलित हैं।
सोयाबीन की फसल के लिए आवश्यक भूमि
सोयाबीन की खेती विभिन्न प्रकार की मृदा में की जा सकती है लेकिन हल्की मृदाएं अच्छी मानी जाती हैं।दोमट, मटियार दोमट और अधिक उर्वरता वाली कपास की काली मृदाएं वास्तव में आदर्श मानी जाती हैं।
भूमि का PH मान 6.6 से 7.5 होना चाहिए तथा मृदा में वर्षा का पानी ना भरे, अन्यथा जड़ों का विकास अच्छा नहीं होगा जड़े सड़ जाएंगी।
सोयाबीन की फसल के लिए खेत की तैयारी करना
गहरी भूमियों में मिट्टी पलटने बाले हल से एक गहरी जुताई करनी चाहिए इसके बाद दो-तीन बार हैरो चलाना चाहिए।
इसके बाद खेत में पाटा या पटेला चलाकर खेत को समतल कर लेते है जिससे खेत में कहीं भी गड्ढे उबड़ - खाबड़ हो तो खेत की भूमि समतल हो जाती है।
खेत ढालदार होना चाहिए जिससे बरसात का पानी खेत में भरे नहीं। बुवाई करते समय खेत में नमी होनी चाहिए। अतः पलेवा करके बुवाई करनी चाहिए।
सोयाबीन की बुवाई करने का सही समय एवं सही ढंग -
जल्दी बुवाई करने पर पौधों की वृद्धि अधिक होती है तथा उपज सीमित रह जाती है और देर से बुवाई करने पर पौधों की वृद्धि कम होती है इसलिए इसको सही समय पर बोना चाहिए।
सोयाबीन की खेती की निम्नलिखित समय पर बुवाई करनी चाहिए-
(1) उत्तरी क्षेत्र - उत्तरी क्षेत्र में सोयाबीन की बुवाई मई के अंतिम सप्ताह से लेकर मध्य जून तक की जाती है।
(2) मध्य क्षेत्र - मध्य क्षेत्र में सोयाबीन की बुवाई जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के प्रथम सप्ताह तक की जाती है।
सोयाबीन के बीज खरीफ की फसल में 45 सेंटीमीटर की दूरी पर तथा बसंतकालीन फसल में 30 सेंटीमीटर की दूरी पर बोने चाहिए।
पौधे से पौधे की दूरी 4 - 5 सेंटीमीटर होनी चाहिए ताकि पौधों का विकास अच्छा हो सके।भावर भूमि में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 60 सेंटीमीटर होनी चाहिए।
सोयाबीन की बुवाई करने की विधियां
बुवाई की निम्न विधियां है -
(1) सीड्रिल द्वारा बुवाई - यह एक बुवाई की खर्चीली विधि है। इसमें ट्रैक्टर और सीड्रिल का होना बहुत जरूरी है। सीड्रिल में एक पेटी लगी होती है जिसमें बीज को भर दिया जाता है।
सीड्रिल में एक आगे की ओर पहिया लगा होता है उस पहिए में एक चैन लगी होती है जो सीधे पेटी से जुड़ी होती है फिर जैसे-जैसे ट्रैक्टर चलता है तो वह पहिया जमीन के द्वारा चलता है जिससे चैन घूमती है।
जिससे बीज पाइप द्वारा जमीन में गिरते जाते हैं। इस विधि द्वारा पंक्ति में बुवाई हो जाती है। यह बुवाई की अच्छी विधि है लेकिन खर्चीली विधि है।
(2) हल के द्वारा बुवाई - यह बुवाई की एक सस्ती विधि है लेकिन इसमें मेहनत अधिक होती है। इस विधि में एक हल होना अति आवश्यक है हल में एक ऊपर की ओर चोंगा लगा होता है।
बीज को जुताई करते समय चाेंगा में डालते है जिससे बीज कोंगा द्वारा मिट्टी में चला जाता है और बुवाई हो जाती है।
(3) छिड़काव विधि - यह विधि बुवाई की एक सस्ती विधि है। इस विधि द्वारा तैयार है खेत में बीजों को छिड़क दिया जाता है और फिर कल्टीवेटर द्वारा जुताई कर देते हैं।
इस विधि द्वारा बुवाई करने से खेत में कहीं पर पौधे अधिक घने और कहीं पर पौधे अधिक दूर-दूर जमते हैं। लेकिन हमारे क्षेत्र में छिड़काव विधि ही सबसे अधिक प्रचलित विधि है।
सोयाबीन की बुवाई करने के लिए उचित बीजदर
छोटे दाने वाली फसलों को 70 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर तथा मध्यम दाने वाली फसलों को 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और बड़े दाने वाली फसलों को 100 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से होना चाहिए।
बीज अच्छी किस्म के होने चाहिए। जिसका सामान्यता अंकुरण 85% हो।
सोयाबीन का बीजोपचार करना
सोयाबीन के अंकुरण को बहुत से रोग एवं कीट हानि पहुंचाते हैं इनकी रोकथाम के लिए बीज को बोने से पहले 3 ग्राम थीरम अथवा डायथेन एम 45 प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
इसके पश्चात बुवाई से कुछ समय पहले राइजोबियम कल्चर 500 ग्राम प्रति 80 किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए। बीजोपचार करने से पौधों में रोग नहीं लगते एवं पौधे स्वस्थ उगते हैं।
सोयाबीन की फसल के लिए आवश्यक खाद एवं उर्वरक
मृदा परीक्षण करवाने के बाद ही मृदा में खाद देना चाहिए।यदि किसान के पास जैविक खाद अर्थात गोबर की खाद है तो और ही अच्छा रहेगा।
सोयाबीन दलहनी फसल होने की वजह से नाइट्रोजन की कम आवश्यकता पड़ती है। 20-30 किलोग्राम नत्रजन तथा 60-80 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40-60 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए।
बुवाई के 30 से 35 दिन बाद सोयाबीन का एक पौधा उखाड़कर देखना चाहिए की जड़ों में ग्रंथियां पड़ी या नहीं।यदि ग्रंथियां ना पड़े हो तो 30 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर की दर से फूल आने के समय प्रयोग करना चाहिए।
सोयाबीन की फसल में आवश्यक सिंचाई
खरीफ की फसल होने के कारण सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन फिर भी यदि बरसात ना हो तो फली भरते समय अर्थात सितंबर माह में एक सिंचाई कर देनी चाहिए।
जिससे खेत में नमी बनी रहे। खेत में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए।
सोयाबीन की फसल में खरपतवार प्रबंधन करना
खरपतवार नियंत्रण के लिए सोयाबीन में दो निराई गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहले निराई गुड़ाई बुवाई के 25 से 30 दिन के अंतर पर तथा दूसरी निराई गुड़ाई 40 से 45 दिन के अंतर पर करनी चाहिए।
इसके अलावा रासायनिक दवाइयों द्वारा खरपतवारो को नष्ट करना चाहिए। इसके लिए रासायनिक दवाइयों का उचित समय पर छिड़काव करना चाहिए।
सोयाबीन की फसल में उचित फसल चक्र अपनाना
सोयाबीन एक दलहनी वर्ग की फसल है। इसीलिए सोयाबीन की फसल को उगाने से मृदा में नत्रजन व कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है।
अन्य फसलों की अपेक्षा सोयाबीन की फसल को उगाने से मृदा की भौतिक दशा में भी सुधार होता है। इसलिए सोयाबीन की फसल की कटाई के बाद उगाई जाने वाली फसलों से भी अच्छी उपज प्राप्त होती है।
सोयाबीन की फसल के साथ निम्न फसलें उगाई जा सकती है -
1. सोयाबीन - आलू - मक्का (बसन्त)
2. सोयाबीन - गेहूं
3. सोयाबीन - चना
4. सोयाबीन - आलू - तम्बाकू
5. मक्का - आलू - सोयाबीन (बसन्त)
6. ज्वार - सोयाबीन - चीना (बसन्त)
सोयाबीन की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग (बीमारियां)
(1) पीला मोजैक - यह रोग वायरस द्वारा फैलता है इस रोग को सफेद मक्खी फैलाती है इसकी रोकथाम करने के लिए रोगी पौधे को उखाडकर नष्ट कर देना चाहिए।
रोग को फैलने से रोकने के लिए बुवाई के 30 दिन बाद फास्फॉमिडान 100 E.C. की 230मिली. दवाई का प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
(2) बीज या पौध सड़न - अंकुरण के समय पौधा सड़ जाता है इसकी रोकथाम हेतु थीरम 4.5 ग्राम प्रति किलोग्राम से बीज को उपचारित करके बोलना चाहिए।
(3) गेरुई - पत्तियों पर धब्बे पड़ जाते हैं तथा अंत में पत्तियां गिर जाती हैं।इसकी रोकथाम के लिए डाईथेन Z-78, 2.5 किलोग्राम प्रति 1000 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
(4) एंथ्रेकनोज - यह कोललेटोट्राइकम गलाइसिनीज फफूंद द्वारा होता है।इस रोग में जो पौधा रोग ग्रस्त होता है उसमें भूरे काले रंग के धब्बे दिखाई देते है।
फिर बाद में रोगी पौधे की पत्तियां और टहनी सूख जाती हैं। इसके नियंत्रण के लिए जिनेब 0.25% का छिड़काव करना चाहिए। रोगरोधी किस्में ब्रेग, पंजाब आदि बोना चाहिए।
सोयाबीन की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट
(1) फली छेदक - यह कीट धीरे धीरे पत्तियों को खाकर पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं।इसकी रोकथाम के लिए कार्बराइल 50%, घुलनशील चूर्ण 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए।
(2) तना छेदक - इस कीट के प्रभाव से तना सूख जाता है तथा पत्तियां झुक जाती हैं। इस कीट की रोकथाम के लिए थिमेट 10% पाउडर 10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बुवाई से पूर्व खेत में मिलाना चाहिए।
(3) सफेद मक्खी - यह मक्खी पत्तियों का रस चूस कर पीला मोजेक रोग के विषाणु फैलाती है।इसकी रोकथाम के लिए मेटासिस्टॉक्स (1%) या मेलाथियान (0.1%) 500 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर में मिलाकर छिड़कना चाहिए।
(4) चक्र भ्रंग - इस कीट की मादा कोमल तने तथा पत्ती के डंठल पर 3 से 7 सेंटीमीटर की दूरी पर चक्र बनाती है जिससे पौधे की ऊपरी पत्ती तथा बाद में पूरा पौधा सूख जाता है।
इसके लिए (0.05%) किवनालफास तथा (0.07%) इंडोसल्फान या (0.03%) मिथाइल डेमेटान का छिड़काव करना चाहिए।
सोयाबीन की फसल की कटाई एवं गहाई
जब सारी फसल की पत्तियां सूख कर पीली पड़ जाएं और जमीन में झड़ने लगे तो हंसिए की सहायता से फसल की कटाई कर लेनी चाहिए।सामान्यतः खरीफ वाली फसल की कटाई अक्टूबर में तथा बसंत ऋतु वाली फसल की कटाई मई-जून में की जाती है।
कटाई करने के बाद गट्ठे बांधकर गट्ठरों को दो-तीन दिन तक सुखाना चाहिए। फिर बाद में गहाई ट्रैक्टर, थ्रेसर अथवा बैलों की दाएं चलाकर और डंडों से पीटकर कर लेनी चाहिए। जिससे बीज सुरक्षित रहते हैं।
सोयाबीन की फसल से प्राप्त उपज
अच्छी बोई गई किस्मों तथा अच्छी पैदा की गई फसल से 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है।इसके अलावा कम उन्नतशील किस्मों के द्वारा 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है।
सोयाबीन के दानों का भंडारण करना
सोयाबीन के दानों का भंडारण करने से पहले यह ज्ञात कर लेना चाहिए कि दानों में 10% से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए। बीज के लिए भंडारण किए गए दानों को 110°F तथा अनाज के लिए भंडारण किए गए दानों को 130°F - 140°F तापक्रम पर सुखाना चाहिए।
बीजों का भंडारण करने से पहले बीजों को थीराम व कैप्टान आदि से उपचारित करना चाहिए। इसके बाद ही बीजों को भंडारित करना चाहिए।
सोयाबीन की फसल से मिलते जुलते कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न-उत्तर
प्रश्न 1. सोयाबीन का उत्पत्ति स्थान कहां है?
उत्तर - सोयाबीन की उत्पत्ति पूर्वी एशिया या चीन में हुई थी।
प्रश्न 2. सोयाबीन की फसल की कटाई कब की जाती है?
उत्तर - सोयाबीन की फसल की कटाई जातियों के आधार पर निर्भर होती है। सोयाबीन की लगभग सभी जातियां 90 से 110 दिन में पककर तैयार हो जाती है। सोयाबीन की फसल पकने पर सभी पत्तियां पीली होकर जमीन पर गिर जाते हैं। जब सभी पत्तियां पीली होकर जमीन पर गिर जाएं तब सोयाबीन की फसल की कटाई की जाती है।
प्रश्न 3. भारत में सोयाबीन की खेती सबसे अधिक किन राज्यों में होती है?
उत्तर - भारत में सोयाबीन की खेती सबसे अधिक मध्यप्रदेश में होती है।
प्रश्न 4. भारत के किस राज्य को सोयाबीन का प्रांत कहा जाता है?
उत्तर - भारत के मध्य प्रदेश राज्य को सोयाबीन का प्रांत कहा जाता है।
प्रश्न 5. सोयाबीन की फसल कितने दिन में पककर तैयार हो जाती है?
सोयाबीन की फसल उसकी किस्मों के ऊपर निर्भर करती है। कुछ किस्में 70 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं तथा कुछ किस्में 90 से 120 दिन में पककर तैयार होती है।